राजनीतिशास्त्र बी० ए० प्रथम वर्ष-प्रथम सेमेस्टर
कौटिल्य की राजधर्म की अवधारणा-
कौटिल्य की महान कृति 'अर्थशास्त्र' में भी राजधर्म की विवेचना की गई है। वहाँ प्रजा के सुख में ही राजा का सुख निहित माना गया है। प्रजा के हित चिंतन में लगा हुआ राजा उसके सुख मतें ही अपना सुख अनुभव करने वाला होता है। अपने आपको, अपनी राजशक्ति का प्रयोग
यदि प्रजा दुखी है तो राजा को उसके दुखों के निवारण में करना चाहिए। उसे यह अनुभव करना चाहिए कि प्रजा के हित में ही उसका हित है।
- मनुस्मृति में राजधर्म की अवधारणा-
मनुस्मृति के 7वें अध्याय में राजधर्म की चर्चा की गयी है। मनु ने आदिकाल में मानव जीवन को उन्नत प्रगतिशील और राष्ट्ररक्षा, राजधर्म और मानव धर्म के मापदण्डों के द्वारा राष्ट्र को सुबल और सुव्यवस्थित बनाने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में मनुष्य के जनम से लेकर मृत्यु पर्यन्त जहाँ संस्कारों का वर्णन किया है वहीं मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए राजधर्म का भी वर्णन किया है। उन्होंने इस महान् ग्रन्थ के द्वारा मानव समाज को संगठित वा उन्नत बनाने के लिये अनेक माध्यमों से राजधर्म की व्याख्या कर राजा, मंत्री, सभासद्, प्रजा तथा इन पर प्रयुक्तम होने वाले दण्ड विधान, कर व्यवस्था, तथा न्याय व्यवस्था, का बहुत सुन्दर ही वर्णन किया है।
पुत्र इव पितृगृहे विषये यस्य मानवाः ।
निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तम। ।
यथा पुत्रः पितृगृहे विषये यस्य मानवाः
निर्भया विचारिष्यन्ति स राजा राजसत्तम्॥
महाभारत में राजधर्म-
महाभारत के शान्तिपर्व में राजदर्शन के विद्वान् आचार्य भीष्म पितामह ने राजधर्म का महत्त्व, राजा की उपयोगिता और राज्य व्यवस्था को बतलाया है। सामाजिक व्यवस्था को चलाने के लिए राजा का होना आवश्यक है। राजा को आदर्श पथप्रदर्शक, रक्षक और उत्तम शासक एवं उच्च आचरण का होना चाहिए, जिससे समाज उसका अनुसरण कर सके।
समाज की रक्षा तथा राज्य का शासन चलाने के लिए राजा को कुछ आदर्शों का पालन करना आवश्यक है। इसकी व्यवस्था आचार्य भीष्म ने इस प्रकार की है-"जो ज्ञान और ज्ञानियों का सम्मान करता है, दूसरे के भले में रत रहता है, सज्जनों के बतलाये हुए मार्ग पर चलता है, त्यागी है, वही राजा राज्य को चलाने का अधिकारी हो सकता है।"
शासन का संचालन वही व्यक्ति कर सकता है जिसमें सेवा की भावना और सेवक के विचार हों। सहिष्णु, गुणग्राही, त्यागी और अच्छे मार्ग पर चलने वाला ही वास्तविक अधिकारी है। स्वार्थी और लोभी ऐसे पद का निर्वाह नहीं कर सकते हैं।
भीष्म पितामह प्रजा के कल्याण
राज्य के अभ्युदय और राज्य संचालन हेतु राजा के लिए राजधर्म का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक मानते हैं। भीष्म पितामह ने कहा है कि "जो राजा प्रजा का कल्याण करने वाला एवं स्वयं स्वार्थहीन होता है वही वस्तुत: अपने राज्य की अच्छी तरह से देखरेख कर सकता है। उसके सत्यनिष्ठ एवं कर्त्तव्यपूर्ण कार्यों का प्रजा पर प्रभाव पड़ता है और राजनीति में स्थिरता रहती है।"
शासक के हाथ में सत्ता की एक शक्ति, प्रजा की सेवा करने की निष्ठा एवं न्याय और सच्चाई का एक बल होता है, जिससे वह राजतन्त्र को राजधर्म और नीति के आधार पर चलाता है। उसको देखकर ही समस्त प्रजा अनुकरण करना सीखती है।
राजधर्म का महत्त्व-
शासन के संचालन का अत्यधिक महत्त्व है। राज्य संचालन के जो नियम, सिद्धान्त और धर्म होते हैं उन्हें ही राजधर्म कहा जाता है। भीष्म पितामह ने राजधर्म के महत्त्व को शान्तिपर्व में निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया है-"सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है, क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्गों का पालन होता है। राजधर्म में सभी प्रकार से त्याग का समावेश है और ऋषि त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म मानते हैं। राजधर्म में सम्पूर्ण विद्याओं एवं सम्पूर्ण लोकों का समावेश हो जाता है।"
यदि राजा विलासी हो एवं अपने कर्तव्य का पालन न करे, तो प्रजा में असन्तोष व्याप्त होगा और वह दुःखी हो जायेगी। अत: राजा को राजधर्म का पालन करना चाहिये। राजधर्म का पालन करके राजा जब प्रजा की रक्षा करता है, तो प्रजा उसका आदर करती है तथा उसकी आज्ञा से बड़े-से-बड़ा त्याग करने को तैयार रहती है।
प्रश्न 2. नीतिशास्त्र एवं दण्ड नीति के परिप्रेक्ष्य में भारतीय राजनीतिक परम्परा की क्या विशेषताएँ है? अथवा प्राचीन भारत में प्रचलित दण्डनीति स्पष्ट कीजिए।
नीतिशास्त्र का अर्थ
नीतिशास्त्र को अंग्रेजी में Ethics 'एथिक्स' तथा हिन्दी में नीतिशास्त्र अथवा आचारशास्त्र कहते हैं। अंग्रेजी में यह शब्द 'ग्रीक' शब्द Ethos से लिया गया है। इसका अर्थ है 'चरित्र' (Character) इस प्रकार नीतिशास्त्र मानवीय चरित्र, उसके आचार व व्यवहारों का विज्ञान है। यही कारण है कि नीतिशास्त्र को Moral Philosophy भी कहते हैं। प्राचीनकाल से ही मानव जाति ने अपने को सुव्यवस्थित करने के लिए कुछ नियम, उपनियम आदि की रचना की जो कालान्तर में आचार का रूप ग्रहण कर लिया। यदि ऐसा न किया जाता तो शायद मानव समाज विशृंखलित हो जाता और नैतिक व्यवस्था नाम की कोई वस्तु न दिखलायी पड़ती। लेकिन मनुष्यों ने अनुभव किया कि अमुक कार्य करने योग्य और अमुक कार्य निषिद्ध है। इस प्रकार सत-असत्, पाप-पुण्य, कर्म-अकर्म, धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित, सद्गुणअसद्गुण आदि नैतिक विषयों का आविर्भाव हुआ। जो कार्य करने योग्य है नीतिशास्त्र उसका समर्थन और जो नहीं करने योग्य है उसका विरोध करता है। नीतिशास्त्र उन नैतिक मूल्यों का अध्ययन करता है जो परम्परा से चले आ रहे हैं तथा जो एक उच्च आशय से प्रतिष्ठित हैं।
नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र एवं व्यावहारिकता-
राजनीति किसी राष्ट्र की शासन पद्धति का सैद्धान्तिक पक्ष होती है। नीति तथा राजनीति के परस्पर सम्बन्ध के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ व्यक्तियों के अनुसार "प्रेम और युद्ध में सभी कुछ उचित है।" मैकियावली तथा उसके अनुयायी इसी श्रेणी में आते हैं। उनका विचार है कि राजाज्ञा ही नीति है। राजा को नैतिक नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं पर वर्तमान समय में सभी राजनीतिक विचारक यह मानते हैं कि राजशास्त्र न केवल व्यावहारिक वरन् न्यायमुक्त भी होना चाहिये। गार्नर का मत है कि, "अपने विभिन्न सम्बन्धों और क्रिया-कलापों में व्यक्तियों की भाँति राज्यों का स्वरूप नैतिक होता है और वे नैतिक नियमों से बँधे होते हैं।" हॉबहाउस का मत है कि"राजनीति नीतिशास्त्र के अधीन होनी चाहिये, हमको नीतिशास्त्र को टुकड़ों में नहीं वरन् पूर्ण में देखने का प्रयास करना चाहिये।'
नीतिशास्त्र में व्यक्ति के उस आचरण का अध्ययन किया जाता है, जो वह किसी समाज का सदस्य होने के नाते करता है। भारतीय चिन्तन परम्परा में राजनीति को नीति से भिन्न नहीं रखा गया था। राजनीति बाह्य शरीर है जबकि नीतिशास्त्र इसकी अन्तरात्मा है। राजनीतिक क्षेत्रों में नीतिशास्त्र का पर्याप्त महत्त्व है।
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